Hellaro एक गुजराती भाषा में बनी फिल्म है और फिल्म को बेस्ट फिल्म का नेशनल अवार्ड मिला हुआ है। Hellaro का मतलब है Outburst, यानि भड़ास या अभिव्यक्ति। इसके मायने “पानी में उठती लहर” भी है। हेल्लारो शब्द अंग्रेजी के हैलो से मैच करता है और पूरी फिल्म इन्ही शब्दो की व्याख्या है। हाल ही में मैने इस फिल्म को mx प्लेयर पर देखा। कमाल की फिल्म है और शानदार है फिल्म में सेट, आर्टवर्क, स्टोरी एंड क्लाइमैक तो उफ्फ एक झटका देता है। फिल्म असल में महिलाओं की आजादी की बात करती है और गुजराती फॉक डांस फिल्म में मेटाफेर को तरह है। सप्रेशन में एक्सप्रेशन शानदार यात्रा है। अगर आपको आर्ट वर्क, आर्टिस्टिक म्यूजिक पसंद है तो ये आपको पसंद आएगी, मैने भी एक सीनियर साथी के रिकॉमडेशन के बाद देखी। साउंड और म्यूजिक का वर्क सबसे लाजवाब है।।
कहानी 1975 की हैं । मंजरी नाम की एक युवा लड़की की शादी कच्छ के रण के एक छोटे से गाँव में हो जाती है। गांव में कई सालों से बारिश नहीं हुई है। ग्रामीणों का मानना है कि यह देवी का श्राप है क्योंकि गांव में पहले एक विधवा महिला कढ़ाई का काम करती थी और पैसे कमाने की कोशिश करती थी और फिर वो किसी ग्रामीण के साथ भाग जाती है तो देवी से गांव श्रापित है। क्षमा याचना के रूप में केवल गांव पुरुष ही देवी को प्रभावित करने के लिए गुजराती लोकनृत्य गरबा प्रस्तुत करते हैं, लेकिन महिलाओं को गरबा की अनुमति नहीं है, औरतों का नाचना गलत समझा जाता है। उनकी बाकी भी कई तरह की आज़ादी पर कलेक्टिवली एक दबाव रहता है। हर सुबह गाँव की महिलाएँ पानी लाने के लिए दूर स्थित तालाब पर जाती हैं, यही एकमात्र समय होता है जब वे दबी हुई नहीं बल्कि आज़ाद होती हैं, तो बाकी गांव की दूसरी महिलाओं के साथ इस वक्त को थोड़ा खुलकर जी लेती है, बाते कर लेती है। एक दिन उनकी मुलाकात एक बेहोश पड़े ढोल बजाने वाले से होती है और फिल्म की हीरोइन मंजरी उसको पानी पिला देती है । बदले में, वह अपना ढोल बजाता है और महिलाएं पहली मुद्दतो बाद गरबा करती हैं। हालांकि इस पहली बार के महिलाओं की तरफ ढोल बजाने वाला अपनी पीठ करके ढोल बजाता है। इसके भी अपने मायने है। शुरुवात में उनके पैर ठिठकते है, सालो पुराना दर्द, दबाव, और गांव के मर्दों का डर लेकिन फिर सभी मिलकर नृत्य करती है। तब से वे हर दिन पानी लेने जाती और इसी बीच इस ढोल वाले की थाप पर गरबा करती हैं। कुछ समय बाद महिलाएँ उसे अपने गाँव के मुखिया से आश्रय माँगने और नवरात्रि के लिए ढोल बजाने के लिए मना लेती हैं। ढोल वाले को गांव में ही रहने की जगह मिल जाती है। फिर वो हर दिन, दिन में महिलाओं के लिए चोरी से नदी के घाट परऔर रात में पुरुषों के लिए गांव में ढोल बजाता है । एक दिन महिलाएं गरबा खेलते पकड़ी जाती हैं और सजा के तौर गांव के सभी मर्द उनकी पिटाई करते है। और ढोल वाले को बलि देने का फैसला लेते है। गांव के मुखिया की जब तलवार गर्दन पर चलने ही वाली होती है तो एक आदमी के इंटरफियर के बाद ढोल बजाने वाले से उसकी अंतिम इच्छा पूछी जाती है और वो गांव में एक बार फिर से ढोल बजाने का मौका मांगता है। मुखिया और गांव वाले मान जाते है। ढोलकिया ढोल बजाने लगता है, और सबसे पहले अपने आदमी से पीटी हुई मंजरी अपनी दहलीज से पांव बाहर निकालती है और ढोल पर सभी मर्दों के बीच नाचना शुरू करती है, उसका पति उसको रोकता है लेकिन अब सप्रेशन एक्सप्रेशन में बदल चुका है। देखते ही देखते सभी महिलाएं अपने अपने घरों से बाहर निकल कर ढोल पर नाचना शुरू कर देती है, शानदार गरबा होता है। ये उनका गरबा असल में Patriarchy पर एक तमाचे किं तरह लगता है। मर्द गुस्से में मूंछों पर ताव देते है और क्रोध से भर जाते है| गांव की औरतों का नृत्य अब ऐसी फॉर्म में रिफ्लेक्ट होता है मानो जैसे अब वो नृत्य कर नही रही हो बल्कि अब नृत्य स्वम् हो रहा हो और उन महिलाओं से होकर बस बह रहा हो, इस मूमेंट पर फिल्म को कमाल की सिनेमेटोग्राफी, एंगल और बैकग्राउंड म्यूजिक सच में दिल के पास कई हार्मोन को सिक्रेट करता है। जब मुखिया अपनी तलवार उठाते है तो अचानक बिजली कड़कती है और तेज बारिश में पूरा गांव भीगता है। गांव के मर्द आश्चर्य में पड़ जाते है। औरते नाचती रहती है, ढोलकिया झूमकर ढोल बजाता रहता है, गांव के मर्दों को आंखे शर्म से जुक जाती है और फिल्म खतम होती और इसका खुमार शायद कई दिनों तक आपके अंदर कितने ही सवाल और जवाब छोड़ जाता है।
पूरी टीम का शानदार सिनेमा❤️❤️